भगवान विष्णु का कूर्म/कच्छप अवतार

 

भगवान विष्णु का कूर्म/कच्छप अवतार

                                         
एक बार देवराज इंद्र हाथी पर बैठ कर भ्रमण को जा रहे थे मार्ग में उन्हें महर्षि दुर्वासा मिले, देवराज इंद्र ने महर्षि दुर्वासा को प्रणाम किया महर्षि दुर्वासा ने प्रसन्न होकर अपनी एक दिव्य माला देवराज इंद्र को भेट की देवराज इंद्र ने उस माला को हाथी के सूंड में लपेट दी हाथी ने उस माला को भूमि पर गिरा दिया, अपनी भेंट का यह अनादर देखकर ऋषि दुर्वासा क्रोध से भड़क उठे और बोले, हे अभिमानी इंद्र तूने मेरी दिव्य माला को गिराया है तुम्हें मै शाप देता हूँ तेरा सम्पूर्ण वैभव, तेरे सभी देवता और यह त्रिभुवन भी श्रीहीन होकर भूमि में मिल जाएँ भगवान शंकर के अंशावतार महर्षि दुर्वासा अत्यंत क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति थे उनके क्रोध से देवता, राक्षस और मनुष्य सभी डरते थे, ,क्योकि वह छोटी सी बात पर भी भीषण शाप दे डालते थे महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण त्रिभुवन तेजहीन होने लगा देवगण दुर्भल और श्रीहीन हो गये देवता जब दुर्बल हो गये तब दैत्यराज बलि ने इस अवसर का लाभ उठाकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया और युद्ध में देवता पराजित हुए और दैत्यों ने देवताओ को स्वर्ग से निकाल दिया और इंद्रासन पर अधिकार कर लिया और स्वर्ग में दैत्यराज बलि का साम्राज्य स्थापित हो गया उधर सभी देवता महर्षि दुर्वासा के शाप से मुक्ति कैसे मिले इसके लिए श्रीविष्णु के शरण में गये श्रीविष्णु देवताओ से बोले  पुन; श्रीयुक्त होने के लिए आप लोगों को अमृतपान करना होगा और अमृत समुद्र के गर्भ में मिलेगा, अमृत पाने के लिए आप लोगों को समुद्र का मंथन करना पड़ेगा| भगवान विष्णु की बात सुनकर इंद्र और आदि देवता समुद्र – मंथन के लिए तैयार हो गये और शीघ्र ही राक्षसों को पराजित करने की सोचने लगे श्रीहरी ने देवताओं से कहा समुद्र मंथन का कार्य इतना सरल नही है समुद्र मंथन के लिए दैत्यों की भी सहायता लेनी होगी भगवान विष्णु के परामर्श को मानकर इंद्र आदि देवता दैत्यराज बलि के दरबार में पहुचे और दैत्यों से संधि कर उन्हें समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया संधि इस बात पर हुयी अमृत दैत्यों और देवों में आधा-आधा बँटेगा, दैत्यों और देवों ने मिलकर समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को जड़ से उखाड़ लिया और समुद्र की तरफ चल पड़े लेकिन शीघ्र ही थककर चूर हो गये पर्वत किसी भी क्षण देव और दानव को अपने निचे कुचल देता देवराज इंद्र ने श्रीविष्णु का स्मरण किया भगवान विष्णु प्रगट होकर मंदराचल पर्वत को अपने वाहन गरुड पर रख लिया भगवान विष्णु की सहायता से मंदराचल पर्वत को समुद्र में स्थापित कर दिया गया श्रीविष्णुजी ने वासुकी नाग को नेति (रस्सी ) के रूप में प्रयोग करने का आदेश दिया दैत्यों ने वासुकी को मूँह की ओर से पकड़ा और देवों ने पूँछ की ओर पकड़ा समुद्र मंथन के लिए देवताओ, दैत्यों और वासुकी नाग को बहुत श्रम करना पड़ा वासुकी नाग के मुँह से जो विष निकलता था वह दैत्यों को रह – रह कर आहत कर देता था समुद्र की सतह पर रखा होने के कारण मंदराचल पर्वत ठीक प्रकार से नही घूम पा रहा था भगवान विष्णु समुद्र- मंथन की इस कठिनाई को भाँप गए देवताओं की सहायता करने के लिए भगवान विष्णु ने एक विशाल कच्छप (कूर्म/ कछुए) का रूप धारण किया और मंदराचल पर्वत के नीचे आधार के रूप में स्थित हो गये| श्रीविष्णु अपने अंश-रूप में वासुकी,दैत्यों और देवों में समान रूप से प्रविष्ट हुए, कच्छप -अवतारी श्रीविष्णु की पीठ का आधार पाकर मंदराचल पर्वत आसानी से घुमने लगा अचानक समुद्र मंथन से एक कमंडल निकला देवता और दानव में चीख-पुकार मच गया वातावरण में अंधकार छाने लगा लोग मूर्छित होकर गिरने लगे समुद्र से निकले इस कमंडल में अत्यंत तीब्र कालकूट विष भरा था देवराज इंद्र सहित अनेक देवता भोले शंकर की शरण में कैलास पहुचें और सृष्टि बचाने की प्रार्थना की, भगवान शिवजी तुरंत समुद्र-तट पर आ पहुचें| कालकूट विष को भगवान शिवजी ने अपनी हथेलियों में इक्टठा किया और मुहँ में डाल लिया भगवान शिवजी ने विष को अपने कंठ से नीचे नही जाने दिया  इस लिए उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ’ के नाम विख्यात हुए समुद्र मंथन के दौरान मंदराचल पर्वत से चट्टानों की वर्षा होने लगी चट्टानों के आपस में टकराने से आग लग गयी और सारे वृक्ष जलने लगे देव और दानव को साँस लेने में कठिनाई होने लगी सभी देवता और दानवों ने भगवान विष्णु को याद करते हुए कहा ‘’ हे कूर्म हमारी सहायता करे कुर्मावतारी श्रीविष्णु अपने पैरों को तेजी से हिलाने लगे,जिससे चारों ओर तेज वर्षा होने लगी और आग बुझ गयी वातावरण शीघ्र ही साफ और स्वच्छ हो गया समुद्र –मंथन हजारों साल चलता रहा सर्वप्रथम समुद्र में से सूर्य,चंद्रमा और ध्रुव तारा प्रगट हुए भगवान श्रीविष्णु ने ध्रुव को मंदराचल पर्वत के उपर आकाश में स्थापित कर दिया और सूर्य तथा चंद्रमा उसके चारों ओर परिक्रमा करने लगे और इससे ऋतुएँ, मौसम वनस्पति,फल,फूल अस्तित्व में आए भगवान विष्णु की कृपा से सृष्टि का चक्र चल निकला इस प्रकार भगवान विष्णु ‘चक्रपाणि ‘नाम से विख्यात हुए समुद्र मंथन से चार तत्व निकले पृथ्वी,अग्नि,जल और वायु| ये निकलते ही चारों दिशाओ में फ़ैल गये श्रीविष्णु ने चारों हाथो द्वारा उन्हें नियंत्रित कर लिया अग्नि उनका चक्र, जल उनका कमल, वायु उनका शंख एवं पृथ्वी उनकी गदा बनी और उसके बाद भाग्य और वैभव की देवी श्री लक्ष्मी निकली और अपने साथ अनेक उपहार ले आई कामधेनु, कल्पवृक्ष, कौस्तुभ, रंभा अप्सरा,सूरा की देवी, ऐरावत हाथी, उच्चै;श्रवा घोड़ा, शारंग धनुष, पांचजन्य शंख,समुद्र –मंथन चलता रहा और अंत में धन्वंतरी अमृत का कलश लेकर समुद्र से निकले| अमृत को देखते ही देव और दानव आपस में झगड़ने लगे और दैत्यों और देवताओ में लड़ाई होने लगी दैत्यों ने धन्वंतरी से अमृत का कलश छीन लिया तब भगवान विष्णु ने तुरंत ही एक सुंदर नारी का रूप धारण कर लिया भगवान विष्णु का यह रूप मोहिनी अवतार था दैत्यों ने देखा उनके सामने अति सुंदर नारी खड़ी है सुंदर नारी को देखते ही दैत्यों ने झगड़ना बंद कर दिया और उसे एकटक होकर देखने लगे नारी बने भगवान विष्णु ने दैत्यों से लड़ाई का कारण पूछा -दैत्यों ने कहा हम लोग अमृत पाने के लिए झगड़ रहे है मोहिनी ने दैत्यो से कहा अगर आप लोग चाहो तो मै स्वयं ही यह अमृत देव और दैत्य को बराबर-बराबर बाटकर पिला दूँ ,दैत्य मान गये मोहिनी ने एक लाइन में देवताओ को बैठा दिया और दूसरी नाइन में दानवों को बैठा दिया सभी असुर मोहिनी की सुन्दरता को देखकर मोहिनी से नजर ही नही हटा रहे थे, और मोहिनी अवतारी भगवान विष्णु देवताओ को अमृतपान कराते रहे और असुरों को साधारण जल पिलाते रहे मोहिनी के रूप में खोए असुर श्रीविष्णु के लीला को समझ नही पाए लेकिन एक राहु नामक असुर इस माया को समझ गया और उसने देवता का रूप धारण कर लिया और देवताओ के लाइन के पास गया और सूर्य चंद्रमा के बीच में बैठ गया मोहिनी बने विष्णुजी ने देवता समझ उसे भी अमृत पिला दिया अमृत पीने के तुरंत बाद ही चंद्रमा उसकी असली सूरत को पहचान गये और उन्होंने तुरंत मोहिनी को संकेत से बताया चंद्रमा का संकेत समझ भगवान विष्णु क्रोधित हो उठे और मोहिनी का रूप त्यागकर श्रीविष्णु रूप में प्रगट हो गये मोहिनी को भगवान विष्णु के रूप में बदलते देखकर असुर राहू डरकर वहाँ से भागा, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु की गर्दन काट दी गर्दन कटते ही राहु दो भागों में विभाजित हो गया| राहु ने अमृत पी लिया था, इस लिए उसके दोनों धड जीवित रहें और राहु व केतु कहलाये| वास्तविकता जानकर असुर देवताओ पर टूट पड़े लेकिन अब तक देवताओ ने अमृतपान कर अमर हो चुके थे उन्होंने शीघ्र ही राक्षसों को मार भगाया और स्वर्ग पर पुन; उनका अधिकार हो गया श्रीविष्णु ने शंख बजाकर जयघोष किया और कौस्तुभ मणि को अपने मुकुट पर धारण कर लिया|  

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  2. ऊॅ हरी🙏

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  9. अति सुन्दर

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  12. श्री हरी

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  13. Jai Vishnu dev

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  14. ओम नमो भगवते वासुदेवाय

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  16. हरि ऊँ नारायण

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  17. उत्तम रचना

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  19. जानकारी पूर्ण

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  20. Om shree narayan

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  21. Vishnu Avtaar🙏

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  22. 🙏🙏🙏🌼

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  23. 🙏🙏 wonderful

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  28. उत्तम एवं रोचक

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  30. Knowledgeable note

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  31. हरि ऊँ नारायण

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  33. Give new knowledge 🙏

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  34. उत्तम प्रस्तुति

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