भगवान विष्णु मोहिनी अवतार क्यों लिए
भगवान विष्णु मोहिनी अवतार क्यों लिए

देवराज इंद्र ने महर्षि दुर्वासा की दी हुई दिव्य पुष्प माला को अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया।
हाथी ने उस दिव्य पुष्प माला को भूमि पर गिराकर अपने पैरों तले कुचल दिया।
यह देख कर महर्षि दुर्वासा क्रोधित होकर इंद्र को शाप दे दिया कि शीघ्र ही त्रिभुवन तेज़हीन हो जाएगा और देवगण शक्तिहीन एवं श्रीहीन हो जाएंगे
देवता दानवों से पराजित हो गए दैत्यों ने देवताओं से स्वर्ग छीन लिया दैत्यों ने इंद्रासन पर अधिकार कर लिया चारों तरफ दैत्यों का अधिकार हो गया
सभी देवता विष्णु के पास पहुंचे और दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने का उपाय पूछने लगें
श्री विष्णु बोले पुनः श्रीयुक्त होने के लिए आप लोगों को अमृत पान करना होगा
अमृत समुद्र के गर्भ में मिलेगा, जिसकी प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन आवश्यक है।
भगवान विष्णु की बात सुनकर इंद्र आदि देवता समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए श्रीविष्णु देवताओं से बोले जब तक दैत्य साथ नहीं देंगें तब तक समुद्र मंथन नहीं हो सकता इंद्र बोले हे नारायण दैत्य समुद्र मंथन में हमारा साथ क्यों देंगें
भगवान विष्णु बोले अमृत पाने के लिए दैत्य समुद्र मंथन के लिए राजी हो जायेंगे
अमृत पाने के लिए दैत्य समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए
समुद्र मंथन के लिए मथनी और रस्सी किसे बनाया गया
श्री विष्णु के वाहन गरुण ने मंदरांचल पर्वत को लाकर समुद्र में खड़ा कर दिया
मंदरांचल पर्वत को मथनी बनाया गया
वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया श्री विष्णु के आज्ञा से वासुकी नाग मंदरांचल पर्वत से लिपट गया
समुद्र मंथन में वासुकी नाग को पूंछ की तरफ देवताओं ने पकड़ा और मुँह की तरफ दैत्यों ने पकड़ा
समुद्र मंथन का काम शुरू हो गया
समुद्र मंथन में देवताओं, दैत्यों और वासुकी नाग को भी बहुत श्रम करना पड़ रहा था। इसी लिए वासुकी नाग के मुंह से विष की तेज फूंकार निकल रही थी और दैत्यों को नुकसान पहुंचा रही थी
समुद्र मंथन का काम शुरू हो चुका था लेकिन मंदरांचल पर्वत समुद्र के सतह पर रखने के कारण ठीक तरह से घूम नहीं पा रहा था
देवताओं की सहायता करने के लिए श्री विष्णु ने एक अति विशाल कच्छप का रूप धारण किया और मंदरांचल पर्वत के नीचे स्थित हो गए। कच्छप अवतारी श्री विष्णु की पीठ का आधार पाकर मंदरांचल पर्वत सुगमतापूर्वक घूमने लगा। समुद्र मंथन का काम तेजी से होने लगा।
समुद्र मंथन से एक दिव्य कमंडलु निकला उसके निकलते ही देवता और दानवों में चीख पुकार मच गई।
चारों तरफ अंधकार छाने लगा लोग मूर्क्षित होकर गिरने लगे
समुद्र मंथन से निकले इस कमंडल में अत्यंत तीव्र कालकुट विष भरा था
सभी देवता भगवान शंकर की शरण में कैलाश पहुंचे और सृष्टि को बचाने की प्रार्थना की।

शिवजी ने प्रकृति को बचाने के लिए समुद्र तट पर आ पहुंचे।
कालकुट विष को शिवजी ने अपनी हथेलियों में लिया और विष को पी गए।
भगवान शंकर ने विष को अपने कंठ से नीचे नहीं जाने दिया।
शिवजी का कंठ इस लिए नीला हो गया और वे नीलकंठ के नाम से विख्यात हुए
समुद्र मंथन हजारों साल तक चलता रहा।
समुद्र मंथन से चौदह रत्न और पदार्थ निकले थे
कालकुट हलाहल विष, कामधेनु गाय,
ऐरावत हाथी, उच्चैश्रवा घोड़ा, कौस्तुभ मणि,
कल्पवृक्ष, रंभा अप्सरा, महालक्ष्मी,
वारिणी मदिरा, चन्दमा, शारंग धनुष, पाञ्चजन्य शंख,धनवंतरी और अमृत
समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी निकली

भाग्य और वैभव की देवी लक्ष्मी श्री की देवी लक्ष्मी अपने साथ अनेकों उपहार लाई।
कामधेनु, कल्पवृक्ष, कौस्तूभ मणि, रंभा,अप्सरा, सुरा की देवी, ऐरावत हाथी, उच्चैश्रवा सात मुँहो वाला उड़न घोड़ा, सतरंगी धनुष, पाञ्चजन्य शंख।
समुद्र मंथन चलता रहा और फिर अंत में धनवंतरी अमृत का कलश लेकर समुद्र से निकले।
अमृत कलश को देखते ही दानवों में हड़कंप मच गया
धनवंतरी से अमृत का कलश दानवों ने छीन लिया दानव एक दूसरे से लड़ने झगड़ने लगे
सभी देवता असमंजस की दशा में खड़े थे
भगवान विष्णु ने उन्हें धैर्य बंधाया और बोले
देवगण, आप चिंता न करें। मैं इस अमृत को प्राप्त करने का कोइ उपाय करता हूं।
इतना कहने के बाद भगवान विष्णु ने तुरंत ही एक सुंदर नारी का रूप धारण कर लिया। उनका यह रूप मोहिनी अवतार था।
अपने सामने एक अति सुन्दर नारी को देखकर सभी राक्षसों ने झगड़ना बंद कर दिया और नारी को एकटक होकर देखने लगे।
नारी बने भगवान विष्णु ने उनसे इस लड़ाई का कारण पूछा।
सुंदर नारी के प्रश्न पूछने पर राक्षसों ने सभी बाते कह सुनाई।
राक्षसों की बाते सुनकर उस नारी ने कहा
हे दानवों तुम व्यर्थ ही इतना समय और बल नष्ट कर रहे हो। यदि तुम चाहो तो मैं स्वयं ही यह अमृत तुम्हें बराबर-बराबर बांटकर पीला दूं। इस प्रकार मोहिनी की सुंदरता से प्रभावित होकर राक्षस इस बात पर सहमत हो गए।
राक्षसों के सहमत होने पर मोहिनी ने देवों और दानवों को अलग अलग पंक्तियों में बैठ जाने को कहा।
सभी असुर विश्वमोहनी के रूप जाल में उलझे एकटक उन्हें देखते रहे और मोहिनी अवतारी भगवान विष्णु देवताओं को अमृतपान कराते रहे और असुरों को साधारण जल।
मोहिनी के रूप में खोए असुर उनकी इस लीला को न समझ पाए।
भगवान विष्णु देवताओं को अमृतपान कराते हुए जब अंतिम छोर तक पहुंचे, तब उनकी इस माया को दैत्य स्वर्भानु जान गया।
अमृत पीने के लिए उसने देव रूप धारण कर लिया और देवताओं की पंक्ति के पास पहुंचकर सूर्य व चंद्रमा के बीच में बैठ गया।
मोहिनी बने भगवान विष्णु ने देवता के भ्रम में स्वर्भानु को भी अमृत पीला दिया।
अमृत पीने के तुरंत बाद ही चंद्रमा और सूर्य उसकी असली सूरत को पहचान गए।

और उन्होंने तुरंत मोहिनी बने भगवान विष्णु को संकेत में सारी बात बताई।
सूर्य और चंद्रमा का संकेत समझकर भगवान विष्णु क्रोधित हो उठे और मोहिनी का रूप त्याग कर अपने वास्तविक रूप में प्रगट हो गए।
मोहिनी को भगवान विष्णु के रूप में बदलते देखकर दैत्य स्वर्भानु डरकर वहां से भागा।
भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से स्वर्भानु की गर्दन काट दी
सुदर्शन चक्र से कटते ही स्वर्भानु दो भागों में विभाजित हो गया।
अमृत पी लेने के कारण शीश और धड़ दोनों जीवित रहे और राहु, केतु कहलाए सिर राहु के नाम से और धड़ केतु के नाम से राहु, केतु कहलाए

Mohini Avatār beautifully shows how Vishnu uses charm and illusion to uphold dharma and protect the cosmos.
ReplyDeleteIntresting and nice post
ReplyDelete🙏
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