तुलसी की पूजा क्यों करते हैं

प्राचीन काल की बात है। पृथ्वी पर राजा धर्मध्वज का शासन था।

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा धर्मध्वज देवी लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने के लिए तपस्या कर रहे थे। देवी लक्ष्मी राजा की तपस्या से प्रसन्न होकर राजा धर्मध्वज के यहां पुत्री रूप में जन्म लीया। महालक्ष्मी की कृपा से कार्तिक की पूर्णिमा के दिन माधवी के गर्भ से एक सुंदर और दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। उस समय शुभ दिन, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रह का योग चल रहा था। उस कन्या का वर्ण श्याम था।


उस कन्या की दिव्य कांति से सारा महल प्रकाशमान हो रहा था। उसके दिव्य मनोहारी रूप की तुलना असंभव थी, इसलिए विद्वानों ने उसका नाम तुलसी रखा।

जन्म लेते ही तुलसी बड़ी हो गई। तपस्या करने के लिए तुलसी बद्रिकावन में चली गई। श्री विष्णु मेरे स्वामी हो। यही विचार करके उसने कठोर तपस्या की तुलसी की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रगट हुए। तुलसी ब्रह्माजी को प्रणाम कर के बोली हे प्रभु आप तो अंतर्यामी हैं। हे प्रभु मै पूर्व जन्म में भगवान श्रीकृष्ण की प्रिया, सेविका और प्रेयसी थी। एक बार मैं प्रभु श्रीकृष्ण के साथ हास परिहास कर रही थीं तभी अचानक रास की अधिष्ठात्री देवी श्रीराधा वहां पधारी। मुझे भगवान श्रीकृष्ण के निकट देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो गई और मुझे मानव योनि में उत्पन्न होने का श्राप दे दिया। श्रीकृष्ण ने मुझे मनुष्य योनि धारण करके तपस्या करने के लिए कहा था और मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करने का वचन दिया था। उनकी आज्ञा से मैने अपना दिव्य शरीर त्याग दिया और धरती पर उत्पन्न हुई।

अत: हे प्रभु मुझे भगवान नारायण पति रूप में   प्राप्त हो, यह वर दीजिए 

ब्रह्माजी बोले हे "देवी प्राचीनकाल में श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए एक गोप सुदामा को राधा ने दैत्य वंश में जन्म लेने का शाप दिया था। वहीं सुदामा दैत्यराज शंखचूड़ के नाम से उत्पन्न हुआ है। श्रीकृष्ण का अंशरूप होने के कारण वह बहुत बीर शक्तिशाली और पराक्रमी हैं। जगत में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता उसे पूर्व जन्म की सारी बातें याद हैं। हे देवी, वह तुम्हारे लिए उचित वर हैं। तुम दैत्यराज शंखचूड़ को अपने पति के रूप में स्वीकार करो।

पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी सरस्वती ने देवी लक्ष्मी को शाप दिया था की पृथ्वी पर तुम्हारा जन्म पौधे के रूप में होगा। 

ब्रह्माजी बोले  देवी सरस्वती के शाप को सत्य करने के लिए तुम्हें तुलसी पौधा के रूप में जन्म लेना होगा। संपूर्ण पौधों में तुम्हें श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होगा। तुम्हारे बिना भगवान विष्णु की पूजा निष्फल समझी जाएगी। तुम्हारा एक अन्य नाम वृंदावनी' भी होगा शाप की अवधि पूर्ण होने पर तुम वृक्षों की अधिष्ठाती देवी बनकर भगवान श्रीकृष्ण में लीन हो जाओगी। ब्रह्माजी ने तुलसी को भगवती राधा के सोलह अक्षरों वाले मंत्र का जप करने को कहा भगवती राधा को प्रसन्न करने के लिए तुलसी षोडशाक्षर मंत्र का निरंतर जप करने लगी। भगवती राधा के षोडशाक्षर मंत्र का श्रद्धा और भक्तिपूर्वक निरंतर जप करके देवी तुलसी उन्हीं के समान सिद्ध देवी हो गई। एक बार दैत्य शंखचूड़ बद्रिकावन में आया। जैगीषव्य मुनि की कृपा से उसे भगवान श्रीकृष्ण का एक अमोघ मंत्र प्राप्त हुआ। उसने पुष्कर क्षेत्र में तपस्या करके उस मंत्र को सिद्ध कर लिया था। ब्रह्माजी उसे इच्छित वर दे चुके थे और उन्हीं की कृपा से वह वहां आया था। तुलसी को देखकर दैत्यराज शंखचूड़ तुलसी से उनका परिचय पूछा तुलसी बोली "हे देव मै राजा धर्मध्वज की पुत्री हूं। हे देवी मै ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं। मैं दैत्यराज शंखचूड़ हूं। देवी राधिका के शाप से मैं दानवेंद्र बना हूं। भगवान श्री कृष्ण की कृपा से मुझे पूर्वजन्म की सारी बातें याद हैं। तुम भी पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की गोपी थी। तभी वहां ब्रह्माजी प्रगट हुए और बोले हे शंखचूड़ जिस प्रकार तुम पुरुषों में श्रेष्ठ हो उसी प्रकार तुलसी स्त्रियों में रत्न रूप में सुशोभित है। तुम दोनों का विवाह पूर्व निर्धारित है। अत: अब तुम्हें गंधर्व विवाह के नियमों के अनुसार तुलसी को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए" ब्रह्माजी के परामर्श से दैत्यराज शंखचूड़ ने तुलसी से गंधर्व विवाह करके उसे अपनी पत्नी बना लिया  

शंखचूड़ से आतंकित देवगण विष्णु की शरण मे 

परम सुंदरी तुलसी के साथ आनंदमय जीवन बिताते हुए दैत्यराज शंखचूड़ ने अनेक वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया। अपनी शूरवीरता से शंखचूड़ ने देवताओं के सारे अधिकार छीन लिए।  सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए और अपनी दुर्दशा के बारे में बताते हुए सहायता की प्रार्थना करने लगे। सभी देवताओ के साथ ब्रह्माजी और शिवजी भगवान विष्णु के पास गए और बोले 

हे  दयानिधान अब आप ही हमारी रक्षा करें। दैत्य शंखचूड़ का अंत आपके सिवा और कोई नहीं कर सकता" श्रीविष्णु बोले हे ब्रह्मदेव, दैत्य शंखचूड़ पूर्व जन्म में मेरे अंश से उत्पन्न सुदामा नाम का एक गोप था। मुझ पर उसकी अटूट श्रद्धा थी। एक बार उसकी किसी बात पर क्रोधित होकर भगवती राधा ने उसे दानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया था। क्रोधवश देवी राधा ने शाप तो दे दिया, किंतु जब सुदामा मुझे प्रणाम करके रोता हुआ सभा भवन से बाहर जाने लगा, तब दयामयी राधा का क्रोध शांत हो गया। शाप की सोचकर उनकी आंखों में आंसू भर आए। उन्होंने ने दुःखी सुदामा को रोक लिया। तब मैने श्रीराधा को समझाया और उन्हें धैर्य रखने के लिए कहा। इसके बाद मैने सुदामा को आधे क्षण में ही दैत्य की योनि से मुक्त होकर पुनः गोलोक में लौट आने का वर प्रदान किया। हे देवताओं, गोलोक के आधे क्षण में ही भूमंडल पर सैकड़ों वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार सब कुछ पूर्व निश्चित व्यवस्था के अनुसार ही हो रहा हैं। अब शंखचूड़ की मृत्यु का समय निकट आ गया है। किंतु शंखचूड़ को वर प्राप्त है कि उसके गले में भगवती का कवच और देवी तुलसी का सतीत्व सदैव उसकी रक्षा करेंगे। अतः मैं अपनी माया द्वारा उसका कवच प्राप्त करके तुलसी का सतीत्व भंग करूंगा। 

तुलसी मेरी प्राणप्रिया है, इससे मुझे पाप भी नहीं लगेगा। तब शिवजी मेरा यह त्रिशूल लेकर शंखचूड़ का संहार कर दे। मृत्यु के उपरांत शंखचूड़ मुझमें लीन हो जाएगा और तुलसी अपना शरीर त्यागकर पुनः मेरी प्रिय पत्नी बन जाएगी।"यह कहकर भगवान विष्णु ने शिवजी को अपना त्रिशूल सौंप दिया 

भगवान शिव और शंखचूड़ का सामना 

पुष्पभद्रा नदी के तट पर पहुंचकर शंखचूड़ ने भगवान शंकर को देखा। उस समय भगवान शिव योगासन की मुद्रा में बैठे हुए थे। उनके आस-पास भद्रकाली व कार्तिकेय विराजमान थे। उन्हें देखकर दैत्य शंखचूड़ अपने दिव्य विमान से उतरा और मस्तक झुकाकर तीनों को प्रणाम किया। भगवान शिव शंखचूड़ से बोले हे शंखचूड़ पूर्वजन्म में तुम भगवान श्रीकृष्ण के सुदामा नामक प्रिय पार्षद थे। देवी राधा के शाप के कारण तुम दैत्य योनि में उत्पन्न हुए। भगवान श्रीकृष्ण के भक्त और एक विद्वान पुरुष हो, फिर देवताओं के तुच्छ राज्य में क्यों उलझे हुए हो। तुम देवताओं का राज्य वापस करके मुझसे इच्छित वर प्राप्त करो और अपने राज्य में सुख से रहो। शंखचूड़ बोला भगवन आपका कथन सत्य है; लेकिन जिसके पास बल है, वहीं शासन का उपयुक्त अधिकारी होता हैं और वहीं शासन कर सकता है। यह नियम भी स्वयं देवताओं का बनाया हुआ है। फिर स्वर्ग के राज्य के लिए तो देवताओं और दैत्यों का विवाद सदा से चला आ रहा हैं।

शंखचूड़ भगवान शिव को प्रणाम किया और युद्ध के लिए तैयार हो गया। भगवान शिव ने अपनी सेना को युद्ध का आदेश दे दिया। कार्तिकेय के आक्रमण से दैत्य घबरा उठे। तब शंखचूड़ ने विमान पर सवार होकर वाणों की वर्षा आरंभ कर दी, जिससे चारों ओर भयंकर अंधकार छा गया। इसके बाद उसने आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, जिससे देवताओं में भगदड़ मच गई। प्रतापी दैत्य शंखचूड़ कार्तिकेय के धनुष को काटकर उनके रथ को छिन्न भिन्न कर दिया। शंखचूड़ के दिव्यास्त्रों से कार्तिकेय के अंग प्रत्यंग घायल हो गए। सहायता के लिए कार्तिकेय ने भद्रकाली का ध्यान किया। भद्रकाली ने फौरन पहुंचकर युद्ध की कमान संभाल ली और शंखचूड़ पर नारायणास्त्र चलाया उसे देखते ही शंखचूड़ ने मस्तक झुकाकर उस अस्त्र को प्रणाम किया। नारायणास्त्र उसी क्षण अदृश्य हो गया। तब देवी भद्रकाली ने अभिमंत्रित पाशुपतअस्त्र को चलाना चाहा तो एक आकाशवाणी हुई,

देवी भद्रकाली शंखचूड़ की पत्नी तुलसी एक परम साध्वी स्त्री हैं। जब तक उसका सतीत्व और शंखचूड़ का कवच बचा रहेगा, पाशुपत अस्त्र भी इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। तब देवी भद्रकाली भगवान शिव के शरण में गई और उन्हें युद्ध का सारा हाल बताया।

भगवान शंकर स्वयं अपने गणों के साथ युद्ध भूमि में आ गए। उन्हें देखकर दैत्य शंखचूड़ अपने रथ से उतरा और उन्हें दंडवत प्रमाण करके पुनः रथ पर सवार युद्ध करने लगा। शिवजी ने असंख्य दैत्य मार गिराए लेकिन शंखचूड़ अभी भी जीवित था और चट्टान की तरह उनसे लोहा ले रहा था। आखिकार जब शंखचूड़ किसी भी प्रकार से पराजित न हुआ, तब शिवजी ने भगवान विष्णु का स्मरण किया। 

तुलसी का शील भंग और शंखचूड़ की मृत्यु 

भगवान शिव के स्मरण करते ही श्रीहरि एक अत्यंत वृद्ध ब्राम्हण का वेश धारण कर युद्धभूमि में प्रगट हुए और शंखचूड़ के निकट जाकर बोले,"राजन तुम बहुत उदार और दानी हो। इस गरीब  ब्राम्हण को भिक्षा देने की कृपा करो। तुम सभी की अभिलाषाएं पूरी करते रहे हो। मुझ वृद्ध पर पर भी दया करो। हे राजन, यदि तुम इच्छित दान देने की प्रतिज्ञा करो तो मैं कुछ मांगू?

शंखचूड़ प्रसन्नतापूर्वक बोला,"ब्राह्मण देवता, मैं बड़ा भाग्यशाली हूं कि मुझे युद्धभूमि में भी दान करने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है। आपको जो चाहिए निसंकोच माँगिए। मैं आपको इच्छित वस्तु प्रदान करने का वचन देता हूं" तब श्री विष्णु अपनी माया फैलाते हुए बोले 

"हे राजन, दान में मुझे तुम्हारा कवच चाहिए।"शंखचूड़ ने उसी क्षण अपने शरीर से कवच नोचकर उस वृद्ध ब्राह्मण को दे दिया। कवच प्राप्त कर श्री विष्णु शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के पास गए। पति को युद्ध से आया जानकर तुलसी ने हर्षपूर्वक उनका स्वागत किया। 

श्री विष्णु ने तुलसी के साथ समागम करके उसके सतीत्व को खंडित कर दिया और अपने मनोहर रूप में प्रगट हो गए।

उन्हें देखकर तुलसी क्रोधित होते हुए बोली,"भगवन आज आपने छलपूर्वक मेरा शील भंग कर मेरे स्वामी की हत्या करवा दी। आपका हृदय पाषाण के समान है, इसी कारण आप इतने कठोर बन गए। इसलिए हे देव मैं आपको शीला रूप में परिणत होने का शाप देती हूं।

श्री विष्णु को शाप देने के बाद शोकातुर तुलसी विलाप करने लगी। तब श्री विष्णु बोले, तुलसी शोक मत करो। शंखचूड़ मेरा अंश रूप था। उसके अंदर मेरा ही निवास था। तुम मुझे पत्नी रूप में पाने के लिए अनेक वर्षों तक कठोर तप कर चुकी हो। उस समय तुम्हारे समान शंखचूड़ भी तप कर रहा था। शंखचूड़ युद्ध में मरकर मुझमें लीन हो जाएगा। तुम भी दिव्य देह धारण कर मेरी पत्नी के रूप में सुशोभित होंगी। 

तुम्हारा यह वर्तमान शरीर गंडकी नदी के रूप में विख्यात होगा। तुम्हारे केशो से एक दिव्य वृक्ष उत्पन्न होगा, जो तुलसी के नाम से प्रसिद्ध होगा। 

तुम्हारे शाप को सत्य सिद्ध करने के लिए मेरा एक अंश पाषाण- रूप में स्थापित होगा, जो शालिग्राम के नाम से जाना जाएगा। जो भक्तजन तुलसी के साथ शालिग्राम का विवाह करेंगे, उनकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी और वे  मोक्ष के अधिकारी बन जाएंगे।

तब तुलसी ने अपने शरीर को त्यागकर दिव्य रूप धारण कर लिया और श्री विष्णु के साथ बैकुंठ लोक में चली गईं।

इधर युद्ध भूमि में शिवजी ने शंखचूड़ पर श्री विष्णु का दिया हुआ त्रिशूल चला दिया। तब शंखचूड़ ने सारा रहस्य जानकर अपना धनुष फेक दिया और योगासन लगाकर श्री विष्णु का स्मरण करने लगा। दिव्य,त्रिशूल ने शंखचूड़ सहित सभी दैत्य को अपनी तीव्र अग्नि में जलाकर भस्म कर दिया। शरीर के भस्म होते ही शंखचूड़ भगवान विष्णु में लीन हो गया 

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  1. May Maa Tulsi bless your home with peace and prosperity. 🙏

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